आनन्द मानव जीवन का सार्वभौमिक लक्ष्य है

10 December, 2022, 8:01 pm

आनन्द मानव जीवन का सार्वभौमिक लक्ष्य है। प्राचीन काल से ही मनुष्य जाति प्रसन्नता की तलाश में है। लेकिन खुशी मनुष्य को आसानी से नहीं मिलती। जितना ही व्यक्ति इसके पीछे दौड़ता है, उतना ही वह उसको चकमा देती है। भगवद्गीता में आनन्द के विषय में विस्तृत रूप से चर्चा की गई है, और व्यापक कल्याण का एक स्पष्ट  संदेश दिया गया है। श्रीकृष्ण ने अपने संवाद की शुरूआत में ही इस बात पर बल दिया है कि मनुष्य के जीवन में शोक का कोई स्थान नहीं है; क्योंकि मनुष्य की मूल प्रकृति है आत्मा, जोकि अविनाशी और अमर है तथा किसी भी प्रकार के दुःख से परे है।

भौतिक प्रकृति के तीन भेदों (अर्थात् गुणों) के अनुरूप आनन्द या सुख भी तीन प्रकार के कहे गए हैं (श्लोक संख्या 18.36 से 18.39 तक)। आत्मा के आत्मसात ज्ञान से प्राप्त हुए सुख को अच्छाई के गुण वाला (अर्थात् सात्त्विक सुख) कहा जाता है। ऐसे आनन्द के परिणामस्वरूप सभी दुःखों का अंत हो जाता है। ऐसे सुख लंबे आध्यात्मिक अभ्यासों के बाद प्राप्त होते हैं। यद्यपि शुरू में ये अभ्यास जहर की भांति प्रतीत होते हैं, परन्तु इनका परिणाम अमृत के समान होता है। इन्द्रियों के अपने विषयों से सम्पर्क के द्वारा उत्पन्न होने वाले सुख को रजोगुण वाला (राजसिक सुख) कहा जाता है। ऐसा सुख पहले तो अमृत जैसा प्रतीत होता है, लेकिन उसका अंतिम परिणाम विष के समान होता है। और वह जो शुरू से अंत तक आत्मा को भ्रांत करने वाला है; ऐसा सुख अज्ञानता के गुण वाला  (अर्थात् तामसिक सुख) कहा जाता है।

इस प्रकार, खुशी की किसमें गुणों के भेद के अनुसार परिभाषित की गई हैं। इन्द्रियों की संतुष्टि से जो सुख मिलता है उसको तामसिक सुख कहा जाता है। इस प्रकार के क्षणिक सुख व्यक्ति को प्रमाद की ओर ले जाते हैं तथा आत्मा को अज्ञान के अंधेरे में धकेल देते हैं। ऐसे सुखों में आसक्त रहने वाला तामसिक व्यक्ति जीवन भर बुरे कर्मों से बंधा रहता है।

          एक राजसिक व्यक्ति अपने धन और सत्ता की शक्ति तथा कीर्ति से सुख पाता है। ऐसी खुशी शुरू में बहुत आकर्षक और मनभावन लगती है, क्योंकि यह विलास और स्वामित्व का गौरव देती है; परन्तु अंत में यह दुख का कारण साबित होती है, क्योंकि वह कभी न पूरी होने वाली अत्यधिक इच्छाओं को जन्म देती है। आज के सुख में कल के दुख का बीज छिपा रहता है। इस प्रकार, भौतिक सुख अल्पकालिक है। इसीलिए, भगवद्गीता में यह सलाह दी गई है कि सांसारिक भोगों के दायरे में मनुष्य को अतिभोग से बचना चाहिए।

          आध्यात्मिक अभ्यास शुरू में कष्टदायक प्रतीत होते हैं, क्योंकि ये बहुत संयम और अनुशासन की अपेक्षा रखते हैं। लेकिन अंततः वे सांसारिक दुखों के पार पहुँचा देते हैं। सात्त्विक सुख व्यक्ति के अपने मन की शान्ति से उत्पन्न होता है। जब व्यक्ति भौतिक सुखों की चिन्ता छोड़ देता है, तब वह अपने ही भीतर वो आनन्द पाता है जो आत्मा में हमेशा स्थित होता है। ऐसा आंतरिक सुख चिरकालिक होता है क्योंकि वह किसी बाहरी कारणों जैसे कि किसी वस्तु, प्राणी या परिस्थिति पर निर्भर नहीं करता। ऐसा प्रसन्नचित्त व्यक्ति किसी भी स्थिति में अविचल रहता है तथा बड़े से बड़े दुख में भी विचलित नहीं होता।

          ये तीन प्रकार के सुख एक दूसरे के विपरीत नहीं हैं। बल्कि सभी प्रकार के सुख मिलकर ही किसी व्यक्ति के जीवन को सुखमय बनाते हैं।

          मोटे तौर पर कहें तो जीवन में आनन्द की ओर ले जाने वाले दो मार्ग हैं, एक है ‘सुगम’ लेकिन हानिकारक और दूसरा ‘दुर्गम’ लेकिन हितकार। ये क्रमशः क्षणिक तथा चिरकालिक सुख के मार्ग हैं। अज्ञानीजन जो बाहरी सुखों की चकाचैंध से आकर्षित होकर अपनी उन्नति का सुविधाजनक मार्ग चुनते हैं; वह बाद में दुख भोगते हैं। लेकिन ज्ञानीजन अपने आप को भौतिक जगत के लुभावनेपन के बहकावे में नहीं आने देते, और आनन्य भक्ति एवं अनासक्त कर्म के सही मार्ग का अनुसरण करते हैं। वे लम्बे समय तक चलने वाली प्रसन्नता को प्राप्त करते हैं।

भगवद् गीता में उन मानवीय लक्षणों का उल्लेख भी किया गया है जो प्रसन्नता को बढ़ावा देते हैं। मन की शान्ति सच्ची प्रसन्नता की एक पूर्व शर्त है। बिना शान्त मन के कोई खुश नहीं रह सकता। आगे यह भी कहा गया है कि वास्तविक शान्ति केवल वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है जो वासनाओं के निरन्तर प्रवाह से विचलित नहीं होता, जो लालसाओं से मुक्त है, जिसमें ‘मैं’ और ‘मेरा’ का भाव नहीं है; तथा जिसमें झूठा अहं नहीं है। ऐसा निर्मल व्यक्ति ही वास्तविक प्रसन्नता का अनुभव कर सकता है। इच्छाओं के दास तो न शान्ति प्राप्त कर सकते हैं और न ही प्रसन्नता। कोई भी आनन्द उस आनन्द से बढ़कर  नहीं हो सकता जोकि व्यक्ति को द्वन्द्वहीन होकर तथा परमात्मा से एकाकार होकर रहने से प्राप्त होता है।

आनन्दपूर्वक जीवन जीने का एक अनिवार्य नियम है मन की समता। व्यक्ति को पूर्ण समभाव की प्रवृति विकसित करनी चाहिए तथा जो भी उसे मिले, वह सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। वो ज्ञानी पुरूष जो समभाव से युक्त होते हैं और जो कर्मों के फल को त्याग देते हैं, वे उस आनन्दमय स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं, जो किसी भी दुख से परे हैं। केवल वही मनुष्य सदा प्रसन्नचित्त रह सकता है जोकि काम और क्रोध के आवेगों को सहने में सक्षम बन चुका है। परम आनन्द उसी व्यक्ति को मिल पाता है जिसका मन शान्त है, जोकि बुराइयों से मुक्त है, जो किसी प्रकार के जुनून से रहित है, जो पाप के लेशमात्र से भी दूर है; तथा जो सदा आत्मा में स्थिर रहता है। यह भी कहा गया है कि प्रसन्नता उसी व्यक्ति को मिल सकती है जो संशय वृत्ति का न हो और जिसकी आस्था अटूट हो।

निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि आनन्द की ओर की यात्रा एक बाहरी सफर से अधिक एक आंतरिक तीर्थ यात्रा है। सच्चे आनन्द का अनुभव वही कर सकता है जिसका मन स्थिर, संतुलित और निर्मल हो; तथा जिसकी आत्मा शुद्ध हो चुकी हो।  जब कोई मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप के बारे में ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तो वह तृप्त हो जाता है और परम हर्ष का अनुभव करता है। वह न तो दुख से विचलित होता है, और न ही सुख के लिए लालायित रहता है। वे बस संतुष्ट है, प्रसन्न है।

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