मन और बुद्वि उसके सभी कार्यों और उन कार्यों के परिणामों के लिए जिम्मेदार हैं। जीवात्मा कर्ता नहीं है ।

9 January, 2023, 4:58 pm

कर्ता-भाव की अवधारणा का वर्णन भगवद् गीता के अध्याय संख्या तीन, चार, पांच और तेरह में विस्तार से किया गया है । दुनिया की सभी गतिविधियों का कर्ता कौन है? इस सवाल का उत्तर वहां स्पष्ट रूप से दिया गया है । यहां पर स्पष्ट किया गया है कि सभी प्रकार के कार्य भौतिक प्रकृति और उसके गुणों के द्वारा ही किये जाते हैं । मनुष्य के मन और शरीर भी भौतिक प्रकृति का ही हिस्सा हैं । इस प्रकार किसी की इंद्रियॉं

मन और बुद्वि उसके सभी कार्यों और उन कार्यों के परिणामों के लिए जिम्मेदार हैं। जीवात्मा कर्ता नहीं है ।

परन्तु अज्ञानतावश, जीवात्मा स्वयं को प्रकृति के कृत्यों का कर्ता मानता है । शरीर और मन आदि के साथ अपनी पहचान के कारण वह अहम् बन जाता है और स्वयं को हर चीज के लिए उत्तरदायी ठहराता है । आत्म-भाव से मोहित होकर जीव यह मानता है कि “मैं कर्ता हूं- मैं यह करता हूं , मैं वह करता हूं ।‘’ शरीर होने के अहंकार और कर्ता होने के गौरव के कारण , जीवात्मा सांसारिक मामलों में उलझ जाता है । फलस्वरूप वह मन-शरीर के द्वारा किए गए कार्यों से उत्पन्न होने वाले सुखों और दुखों से गुजरता है । दूसरे शब्दों में , वह इन्द्रियों , मन और बुद्वि के माध्यम से जीवन के सुखों और दुखों का अनुभव करता है।

इस प्रकार ,शरीर भौतिक कारणों और उनके प्रभावों के लिए जिम्मेदार है, और आत्मा उनसे उत्पन्न सुखों और दुखों को अनुभव करता है । इस तरह से, जीवात्मा शरीर के द्वारा किये गए कर्मों के अनुभवों का संग्रह करता रहता है । अनुभवों का ऐसा भंडार , जीवात्मा के अच्छे और बुरे जन्मों का कारण बनता है ।

परन्तु जो व्यक्ति इन दोनों अर्थात् आत्मा और प्रकृति के अन्तर को जानता है , वह समझता है कि इन्द्रियों और मन आदि के रूप में प्रकृति के गुण ही विभिन्न वस्तुओं के रूप में प्रकृति के गुणों में गतिमान हैं ; और आत्मा स्वयं अचल है । इस प्रकार के आत्मबोध वाला व्यक्ति अपनी वास्तविक आध्यात्मिक पहचान के रूप में जागरूक हो जाता है ; और ये जान जाता है कि जीवात्मा के रूप में वह कार्यों का कर्ता नही है । वह तो केवल अनासक्त एवं निष्पक्ष साक्षी है । इस प्रकार, वह कर्तापन के अभिमान से मुक्त हो जाता है । चूंकि ऐसा मनुष्य अपने मन और शरीर को अलग देखता है , इसलिए वह अपने शारीरिक कार्यों का श्रेय स्वयं को नहीं देता । बाहरी तौर पर पूरी तरह कार्य में लगे रहने के बावजूद , वह सभी कार्यों को अन्दरूनी तौर पर त्याग देता है ।

मनुष्य का जन्म उसके पिछले कर्मों के अनुरूप होता है, और उसी के अनुसार शरीर और मन इत्यादि मिलते हैं । व्यक्ति अपनी स्वाभाविक प्रकृति के अनुसार ही कार्य करने को प्रेरित होता है। कोई उसे जबरदस्ती नहीं बदल  सकता । बल्कि अपने जन्मजात स्वभाव की सच्चाई को सहर्ष स्वीकार करते हुए मनुष्य बुद्वि के माध्यम से आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ सकता है । जब मनुष्य की बुद्वि आत्मा के प्रकाश से रोशन होती है , तब वह आत्मा और भौतिक प्रकृति के अंतर को समझ जाता है , और कर्ताभाव के भ्रम से मुक्त हो जाता है ।

ईश्वर की भूमिका के बारे में कहा गया है , कि यद्यपि सृष्टिकर्ता और निर्वाहक के रूप में , सर्वोच्च भगवान सभी कार्यों की अदृश्य पृष्टभूमि में है ; फिर भी वह उन कामों का कर्ता नहीं है । दुनिया बनाने और बनाए रखने के कार्य उसको प्रभावित नहीं करते , क्योंकि वह अनासक्त है । जिस प्रकार लहरों के चलने से समुद्र की समग्र स्थिति परिवर्तित नहीं होती , उसी प्रकार विभिन्न जीवों की क्रियाओं का प्रभाव सर्वोच्च प्रभु पर नहीं पड़ता । विभिन्न कार्य उसकी अपरिवर्तनशीलता को प्रभावित नहीं करते ।

सर्वव्यापी ईश्वर किसी के लिए कोई कार्य नहीं करता । वो यह निर्देश भी नहीं देता कि अमुक व्यक्ति यह कार्य करेगा या नहीं करेगा । वह न तो कार्यों के परिणाम तय करता है, और न ही कर्मों के फलों को कर्मों के साथ मिलाता है । ये सब तो प्रकृति के नियमों , जो कि निष्पक्ष और अचूक हैं, से निर्धारित होते हैं। परन्तु जब कोई व्यक्ति अपनी अज्ञानता को दूर करने का प्रयास करता है , तो परमेश्वर उसे ज्ञान की रोशनी प्राप्त करने में सहायता जरूर करता है । वो मनुष्य को अच्छे कार्य अनासक्त ढ़ंग से करने को प्रेरित करता है और इसमें मार्ग दर्शन प्रदान करता है । व्यक्ति को ईश्वरीय सलाह मानने या न मानने की आज़ादी है । वह अपनी मर्जी के अनुसार पुण्य या पापकर्म करने के लिए स्वतंत्र है । प्रत्येक व्यक्ति अपनी पसन्द -नापसन्द के अनुसार कार्य करता है ; और सभी परिणामों के लिए स्वयं जिम्मेदार है । इसलिए, अपने कष्टों  के लिए कोई भी ईश्वर को दोषी नहीं ठहरा सकता । कर्तापन की भावना का त्याग कर इस दुनिया के दुखों से मुक्ति प्राप्त करना व्यक्ति की स्वयं की जिम्मेदारी है ।

भगवद् गीता ने मनुष्य को अहंकार से मुक्त होने , अपनी चेतना को आत्मा में स्थिर करने ;और कर्तापन के सभी दावों को पीछे छोड़ते हुए पूरे जोश के साथ काम करने की सलाह दी है । जब व्यक्ति अपने आप को  और अपने सारे कर्मों को भगवान् के प्रति समर्पित कर देता है , तो उसके झूठे अहंकार से उत्पन्न हुआ कर्तापन का गर्व गायब हो जाता है ; और जीवात्मा को परमात्मा के साथ एकरूप होने का एहसास होता है । उसके सारे संदेह ज्ञान की शुद्विकारक अग्नि में भस्म हो जाते हैं । ऐसी अमर अवस्था प्राप्त होने के पश्चात व्यक्ति अपने सभी सांसारिक कर्तव्यों को इस समझ के साथ करता है कि वह केवल ईश्वर के हाथ में एक साधन है ।

अन्त में , जब व्यक्ति यह समझ जाता है कि केवल इन्द्रियॉं , मन और बुद्वि  ही सभी गतिविधियां करते हैं और वह जीवात्मा के तौर पर कुछ भी नहीं करता ; तब वह सांसारिक सुखों और दुखों से मुक्त हो जाता है। फिर, वह सुखद जीवन का आनन्द लेता है । 

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