“फिर मैंने मरना नहीं चुना” जीवन के संघर्ष सें हार नहीं बल्कि जीना सीखा: डॉ. मीनाक्षी सहरावत
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“फिर मैंने मरना नहीं चुना”
लेखिका: डॉ. मीनाक्षी सहरावत
फिर मैंने मरना नहीं चुना जीवन एक यात्रा है—कभी सहज, कभी संघर्षपूर्ण। इस यात्रा में ऐसे भी क्षण आते हैं जब मन हार मान लेने को होता है; जब सब कुछ अर्थहीन लगता है, और जब भीतर की रोशनी बुझती हुई प्रतीत होती है। परंतु इन्हीं अंधेरों में यदि कहीं एक छोटी-सी किरण भी दिखाई दे जाए, तो वही हमें जीने की ताकत दे जाती है।
मैं भी ऐसी ही एक राह से गुज़री—जहाँ मैंने मरने से पहले खुद को खोजने का निर्णय लिया। उस दिन मैंने मरना नहीं, जीना चुना।अंधकार का आरंभ जीवन में हर व्यक्ति किसी न किसी मोड़ पर टूटता है। कभी यह टूटन अपनों की अवहेलना से होती है, कभी असफलताओं से, कभी समाज की कठोर अपेक्षाओं से। ऐसा ही एक समय मेरे जीवन में आया जब सब कुछ बिखरता दिखाई दिया। दिन का उजाला भी धुंधला लगता था और रातें जैसे अंतहीन हो गई थीं। मन एक बोझिल प्रश्न से घिरा था—"अब आगे क्या?"कभी सोचा करता था कि जीवन का अर्थ सफलता में है, दूसरों की स्वीकृति में है। पर जब वे सब मेरे पास नहीं रहे, तो मैं अपने अस्तित्व पर ही सवाल उठाने लगी। भीतर कोई आवाज़ कहती थी—"अब बस, और नहीं।"
लेकिन तभी कहीं बहुत भीतर से एक दूसरी आवाज़ उठी—धीमी, कोमल, पर दृढ़—"जीवन को एक आखिरी मौका और दे।"आत्मसंवाद की शुरुआतउस दिन मैंने खुद से संवाद किया—शायद पहली बार ईमानदारी से। मैंने स्वयं से पूछा, "क्या मर जाना ही समाधान है?" उत्तर नहीं था। जब तक साँसें चल रही हैं, तब तक बदलाव की संभावना है। मैंने अपने भीतर के बिखरे टुकड़े समेटने शुरू किए।आत्मसंवाद वह चाबी थी जिसने मेरे भीतर की तिजोरी खोल दी। मैं समझने लगी कि मनुष्य का अस्तित्व केवल उसकी उपलब्धियों से नहीं, बल्कि उसकी दृष्टि से बनता है। यदि दृष्टिकोण बदल जाए तो पूरी कहानी बदल सकती है।
यहीं से “मरना नहीं, जीना चुनने” की प्रक्रिया आरंभ हुई।पीड़ा से उत्पन्न जागृतिकभी-कभी पीड़ा, जीवन की सबसे बड़ी गुरु बन जाती है। वही हमें वह सिखाती है जो कोई पुस्तक या व्यक्ति नहीं सिखा सकता। जब भीतर का दर्द अपनी चरम सीमा पर पहुँचता है, तब हृदय में करुणा और समझ की एक नई परत उभर आती है।
मुझे एहसास हुआ कि मेरी तकलीफ़ें मुझे तोड़ने नहीं, बल्कि मुझे कुछ सिखाने आई थीं।मैंने उन्हें अपना शत्रु नहीं, शिक्षक माना। हर आँसू ने मुझे मजबूत किया। हर असफलता ने मुझे आत्मचिंतन सिखाया। और हर अकेलेपन ने मुझे अपने भीतर के संसार में उतरने का अवसर दिया।
तभी समझ आया—“मरने का नहीं, बदलने का समय है।”जीवन का पुनर्जन्मजब मैंने नया दृष्टिकोण अपनाया, जीवन का अर्थ बदल गया। छोटी-छोटी चीज़ों में आनंद मिलने लगा—सुबह की धूप, चाय की खुशबू, किसी बच्चे की हँसी।
पहले जहाँ मैं जीवन को एक बोझ मानती थी, अब उसी जीवन में अनंत संभावनाएँ दिखाई देने लगीं। नया आत्मविश्वास जन्मा। मैंने अपने भीतर सोई हुई क्षमताओं को जगाया और धीरे-धीरे अपने टूटे मन को जोड़ना शुरू किया।जीवन का यह पुनर्जन्म आसान नहीं था। कई बार पुराने घाव फिर से खुलते, पर अब मैं उनसे भागती नहीं थी। मैं उन्हें देखती, समझती, और फिर धीरे-धीरे भरना सीख गई।
यह आत्म-उद्धार का मार्ग था—जहाँ मरने की बजाय अपनी आत्मा को नया जीवन देना उद्देश्य बन गया।समाज और आत्मबलसमाज अक्सर उन लोगों को नहीं समझ पाता जो भीतर से झेल रहे होते हैं। परंतु आत्मबल वही है—जो तब भी टिके जब कोई न टिकाए। जब मैंने मरना नहीं चुना, तब मैंने अपने भीतर के उस बल को पहचाना जिसे कोई और नहीं समझ सकता था।
जीवन तभी बदलता है जब व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी खुद उठाता है—क्योंकि कोई और हमें नहीं बचा सकता।जब व्यक्ति अपने मन के भीतर “मैं हार नहीं मानूँगी” जैसा संकल्प करता है, तब सृष्टि भी उसके पक्ष में काम करने लगती है। मेरा अनुभव यही कहता है कि जीवन हमें हर बार गिराकर उठना सिखाता है, ताकि हम अपने भीतर की रोशनी को देख सकें।आत्मविजय का अनुभवआज जब पीछे मुड़कर देखती हूँ, तो लगता है, वह निर्णय—“मरना नहीं”—मेरे जीवन का सबसे बड़ा मोड़ था। उसने मुझे न सिर्फ जीना सिखाया, बल्कि यह भी बताया कि जीवन का मूल्य हमारी साँसों में नहीं, बल्कि उस उद्देश्य में छिपा है जिसे हम जीते हैं।अब मैं दूसरों के दर्द को भी समझ सकती हूँ। मैं किसी के लिए प्रेरणा बन पाई, तो यह उस क्षण का परिणाम है जब मैंने खुद के जीवन को समाप्त करने के बजाय उसे एक अर्थ देने का निर्णय लिया।
हर दिन मैं अपने भीतर दोहराती हूँ—“तुमने मरना नहीं चुना था, इसलिए आज तुम जी रही हो अपनी सच्चाई।”अंततः संदेश“फिर मैंने मरना नहीं चुना” केवल एक वाक्य नहीं, यह एक क्रांति है—अंदर की, आत्मा की, चेतना की। यह बताता है कि जीवन की सबसे बड़ी विजय किसी प्रतियोगिता में नहीं, बल्कि अपने मन के अंधेरे से निकलकर रोशनी तक पहुँचने में है।हर इंसान के भीतर कहीं न कहीं वह शक्ति विद्यमान है जो उसे बचा सकती है। फर्क सिर्फ इतना है कि हम सुनते किसकी हैं—अपने डर की या अपनी चेतना की?
जब हम अपनी चेतना की आवाज़ सुनना शुरू करते हैं, तब जीवन अपने सबसे सुंदर रूप में खुलने लगता है।इसलिए, जब भी जीवन की राहें कठिन लगें—थोड़ा ठहरिए, साँस लीजिए, और खुद से कहिए—
“मैं फिर से जीना चुनती हूँ।”
क्योंकि जीना ही सबसे सुंदर प्रतिशोध है उन सारी परिस्थितियों के विरुद्ध जो हमें तोड़ना चाहती हैं।
लेखक के बारे में
डॉ. मीनाक्षी सहारावत एक लेखिका और शिक्षाविद हैं, जो स्वतंत्र रूप से विभिन्न विषयों पर अपने दृष्टिकोण साझा करती हैं। उन्होंने भौतिकी और गणित में स्नातक, प्रबंधन में स्नातकोत्तर, लोक प्रशासन में एक अतिरिक्त परास्नातक तथा प्रबंधन में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है। वे लेखन और शोध दोनों क्षेत्रों में सक्रिय हैं। हाल ही में उनकी पुस्तक “…And, Then I Chose Not to Die!” प्रकाशित हुई है, जो जीवन की चुनौतियों, हिम्मत और आत्म-खोज पर आधारित है। उनके लेखन में व्यक्तिगत अनुभवों, संवेदनाओं और गहरी आत्मचिंतन की झलक मिलती है।




